Friday, April 30, 2010

Create a strong Aura for yourself

ओरा व्यक्ति के आभामंडल को कहते हैं। हर व्यक्ति का अपना एक प्रभाव होता है और उसमें इस ओरा का खास महत्व होता है। स्वयं को प्रभावशाली बनाने के लिए ओरा का प्रभावी होना आवश्यक है। पेश है कुछ टिप्स अपने ओरा को चमकदार बनाने के लिए।

1. अपने प्रवेश द्वार पर 2 इंच ऊँची दहलीज लगवाएँ। यह दहलीज लकड़ी की ही हो।

2. प्रवेश स्थल को साफ-सुथरा एवं ठीक रखें।

3. प्रवेश द्वार के सामने बाथरूम का दरवाजा न दिखे, अगर ऐसा हो तो प्रयास करें कि उसका दरवाजा दूसरी तरफ खुले अथवा उसके दरवाजे पर बाँस की चिक का पर्दा लगाएँ।

4. घर के अंदर दरवाजे के सामने कचरे का ‍डिब्बा न रखें।

5. घर के किसी भी कोने में अथवा मध्य में जूते-चप्पल (मृत चर्म) न रखें।

6. जूतों के रखने का स्थान घर के प्रमुख व्यक्ति के कद का एक चौथाई हो, उदाहरण के तौर पर 6 फुट के व्यक्ति (घर का प्रमुख) के घर में जूते-चप्पल रखने का स्थल डेढ़ फुट से ऊँचा न हो।

7. द्वार के बाहर दरवाजे के दोनों तरफ प्रमुख व्यक्ति की आँखों की सतह की ऊँचाई पर काले स्वस्तिक बनाएँ, जिससे नेगेटीव आकाशीय एनर्जी घर में प्रवेश न कर सके।

8. द्वार के सामने खाली दीवार हो तो काँच के कटोरे को ताजे फूलों से भरकर रखें।

9. बैठक के कमरे में द्वार के सामने की दीवार पर दो सूरजमुखी के या ट्यूलिप के फूलों का चित्र लगाएँ।

10. घर के बाहर के बगीचे में दक्षिण-पश्चिम के कोने को सदैव रोशन रखें।

Monday, April 19, 2010

चीन है तो चैन कहां रे?

यह अखाड़ा कुछ फर्क किस्म का है। यहां कमजोर भी जीतते हैं, वह भी सीना ठोंक कर। यह लड़ाई बाजार की है जिसमें कमजोर होना एक बड़ा रणनीतिक दांव है। देखते नहीं कि महाकाय, बाजारबली चीन ने अपनी मुद्रा युआन (आरएमबी) की कमजोरी के सहारे चचा सैम के मुल्क सहित दुनिया के बाजार पर इस तरह कब्जा कर लिया कि अब अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वार की नौबत आ गई है। अमेरिका चीन को आधिकारिक रूप से धोखेबाज यानी (करेंसी मैन्युपुलेटर) घोषित करते-करते रुक गया है। चीनी युआन का तूफान इतना विनाशक है कि उसने अमेरिकी बाजार से रोजगार खींचकर अमेरिका के खातों में भारी व्यापार घाटा भर दिया है। पाल क्रुगमैन जैसे अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि दुनिया के बाजार में छाया मेड इन चाइना चीन की मौद्रिक धोखेबाजी का उत्पाद है। सस्ते युआन के सहारे चीन दुनिया के अन्य व्यापारियों को बाजार से दूर खदेड़ रहा है। अमेरिकी संसद में चीन के इस मौद्रिक खेल के खिलाफ कानून लाने की तैयारी चल रही है। अमेरिका के वित्त मंत्री गेटनर, हू जिंताओ को समझाने की कोशिश में हैं। क्योंकि करेंसी मैन्युपुलेटर के खिताब से नवाजे जाने के बाद चीन के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी। वैसे बाजार को महक लग रही है कि शायद चीन अपनी इस मारक कमजोरी को कुछ हद तक दूर करने पर मान भी सकता है। बाजारबली की मारक दुर्बलता चीन को यह बात दशकों पहले समझ में आ गई थी कि कूटनीति और समरनीति की दुनिया भले ही ताकत की हो, लेकिन बाजार की दुनिया में कमजोर रहकर ही दबदबा कायम होता है। यानी अगर निर्यात करना है और दुनिया के बाजारों को अपने माल से पाट कर अमीर बनना है तो अपनी मुद्रा का अवमूल्यन ही अमूल्य मंत्र है। 1978 में अपने आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही चीन ने निर्यात का मैदान मारने के लिए मुद्रा अवमूल्यन के प्रयोग शुरू कर दिए थे। आठवें दशक में चीन का निर्यात बुरी तरह कमजोर था। सस्ती मुद्रा का विटामिन मिलने के बाद यह चढ़ने और बढ़ने लगा। इसे देख कर अंतत: 1994 में एक व्यापक बदलाव के तहत चीन ने डॉलर व युआन की विनिमय दर को स्थिर कर दिया, जो कि इस समय 6.82 युआन प्रति डॉलर पर है। चीन का युआन, डॉलर और यूरो की तरह मुक्त बाजार की मुद्रा नहीं है। इसकी कीमत चीन के व्यापार की स्थिति या मांग-आपूर्ति पर ऊपर नीचे नहीं होती, बल्कि चीन सरकार इसका मूल्य तय करती है, जिसके पीछे एक जटिल पैमाना है। चीन की सरकार बाजार में डॉलरों की आपूर्ति को बढ़ने नहीं देती। चीनी निर्यातक जो डॉलर चीन में लाते हैं उन्हें चीन का केंद्रीय बैंक खरीद लेता है, जिससे युआन डॉलर के मुकाबले कम कीमत पर बना रहता है। अमेरिका का आरोप है कि चीन अपने यहां उपभोग को रोकता और बचत को बढ़ावा देता है, जिससे चीन के बाजारों में अमेरिकी माल की मांग नहीं होती, लेकिन अमेरिकी बाजार में सब कुछ मेड इन चाइना नजर आता है। अमेरिका का यह निष्कर्ष उसके व्यापार के आंकड़ों में दिखता है। पिछले साल चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 227 अरब डॉलर था, जो अभूतपूर्व है। चीन ने अमेरिका को 296 अरब डॉलर का निर्यात किया, जबकि अमेरिका से चीन को केवल 70 अरब डॉलर का निर्यात हो सका। चीन का विदेशी मुद्रा भंडार भी इसका सबूत है जो पिछले एक दशक में पूरी दुनिया में जबर्दस्त निर्यात के सहारे 2,500 अरब डॉलर बढ़ चुका है और चीन के सकल घरेलू उत्पादन का 50 फीसदी है। ऐसे में छोटे निर्यात प्रतिस्पर्धी युआन की आंधी में कहां टिकेंगे? ....चीन ने दुर्बल मुद्रा से दुनिया के बाजारों को रौंद डाला है। महाबली की बेजोड़ विवशता महाबली इस समय ड्रैगन के जादू में बुरी तरह उलझ गया है। चीन इस महाबली को कर्ज से भी मार रहा और व्यापार से भी। अमेरिका के अर्थशास्त्री क्रुगमैन का हिसाब कहता है कि चीन के मौद्रिक खेल के कारण हाल के कुछ वषरे में अमेरिका करीब 14 लाख नौकरियां गंवा चुका है। उनके मुताबिक चीन अगर युआन को लेकर ईमानदारी दिखाता तो दुनिया की विकास दर पिछले पांच छह सालों में औसतन डेढ़ फीसदी ज्यादा होती। चीन ने सस्तंी मुद्रा से अन्य देशों की विकास दर निगल ली। अमेरिकी सीनेटर शुमर व कुछ अन्य सांसद चीन को मौद्रिक धोखेबाज घोषित करने और व्यापार प्रतिबंधों का विधेयक ला रहे हैं। अमेरिका के वित्त विभाग को बीते सप्ताह अपनी रिपोर्ट जारी करनी थी जिसमें चीन को मौद्रिक धोखेबाज का दर्जा मिलने वाला था, लेकिन अंतिम मौके पर रिपोर्ट टल गई। .. टल इसलिए गई क्योंकि महाबली बुरी तरह विवश है। चीनी युआन की कमजोर ताकत बढ़ाने में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। चीन जो डॉलर एकत्र कर रहा है, उनका निवेश वह अमेरिका के बांडों व ट्रेजरी बिलों में करता है। यह निवेश इस समय 789 अरब डॉलर है, जो कि अमेरिकी सरकार के बांडों का 33 फीसदी है। दरअसल अमेरिका के लोगों ने बचत की आदत छोड़ दी है। सरकार कर्ज पर चलती है जो कि बांडों में चीन के निवेश के जरिए आता है। अगर चीन निवेश न करे तो अमेरिका में ब्याज दरें आसमान छूने लगेंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मौद्रिक प्रवाह का पहिया इस समय चीन से घूमता है। अमेरिका के वित्तीय ढांचे में चीन के इस निवेश के अपने खतरे हैं, सो अलग लेकिन अगर मौद्रिक धोखेबाजी की डिग्री मिलने के बाद चीन ने निवेश रोक दिया तो चचा सैम के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। लेकिन अगर अमेरिका युआन की कमजोरी को चलने देता है तो अमेरिका के उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। ... अमेरिका के लिए कुएं और खाई के बीच एक को चुनना है। दुनिया में दोहरा असमंजस पांच छह साल पहले मुद्राओं की कीमतों को मोटे पर अंदाजने के लिए एक बिग मैक थ्योरी चलती थी, जिसमें दुनिया के प्रमुख शहरों में बर्गर की तुलनात्मक कीमत को डॉलर में नापा जाता था। तब भी युआन सबसे अवमूल्यित और स्विस फ्रैंक अधिमूल्यित मुद्रा थी। लेकिन अब बात बर्गर के हिसाब जितनी आसान नहीं है, बल्कि ज्यादा पेचीदा है। चीन के लिए दस फीसदी व्यापार बढ़ने का मतलब है कि अमेरिका के रोजगारों में दस फीसदी की कमी, लेकिन अगर चीन अपने युआन या आरएमबी को 25 फीसदी महंगा करता है तो उसे अपनी 2.15 फीसदी जीडीपी वृद्घि दर गंवानी होगी। दुनिया को उबारने में चीन का बड़ा हाथ है, इसलिए यह गिरावट उन देशों को भारी पड़ेगी जो मंदी से परेशान हैं और चीन उनका बड़ा बाजार है। इन देशों में आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड प्रमुख होंगे। इस सबके बाद भी दुनिया में यह मानने वाले बहुत नहीं हैं कि ताकतवर युआन महाबली की समस्याएं हल कर देगा। अमेरिका में बचत शून्य है और निर्यात ध्वस्त। जिसे ठीक करने में युआन की कीमत की मामूली भूमिका होगी। अलबत्ता इतना जरूर है कि भारत, ताईवान, कोरिया, मलेशिया जैसों को बाजारबली चीन की प्रतिस्पर्धा से कुछ राहत मिल जाएगी। दुनिया का सबसे सफल युद्ध वह है, जिसमें शत्रु को बिना लड़े पराजित कर दिया जाता है। ..यही तो कहा था ढाई हजार साल पहले चीन के प्रख्यात रणनीतिकार सुन त्जू ने। चीन ने दुनिया के बाजार को बड़ी सफाई के साथ बिना लड़े जीत कर सुन त्जू को सही साबित कर दिया। पूरी दुनिया युआन की खींचतान का नतीजा जानने को बेचैन है। नतीजा वक्त बताएगा, लेकिन दिख यह ही रहा है कि बाजार में खेल के नियम फिलहाल बीजिंग से तय होंगे। चीन अपनी शर्तो पर ही युआन के तूफान पर लगाम लगाएगा, क्योंकि भारी कर्ज और ध्वस्त वित्तीय तंत्र के कारण दुनिया के महाबलियों की तिजोरियां तली तक खाली हैं, जबकि चीन अपनी कमजोर मुद्रा के साथ इस समय महाशक्तिशाली है। दुनिया का ताजा आर्थिक विकास मेड इन चाइना है, जबकि दुनिया का ताजा आर्थिक विनाश मेड इन अमेरिका और यूरोप।.. जाहिर है कि दुनिया मूर्ख नहीं है अर्थात वह विकास को ही चुनेगी, यानी चीन की ही शर्ते सुनेगी।

Friday, April 16, 2010

Elections still can be fixed, even if voting machines can't

When I cast my vote, does the machine record it properly? And how would I know? That’s a great question. Then there's also the question of whether electronic receipts would expose who voted for whom.

There has been no lack of controversy over electronic voting machines in recent years. What started out as a technological progression of convenience in casting and counting ballots has turned out to be a giant argument of security, anonymity and the old saying, “if it ain’t broke, don’t fix it.”

Just the other day El Paso County Judge Anthony Cobos put an item on the regular agenda to propose purchasing electronic voting machines that produce a receipt after a ballot is cast. Seems pretty simple, right? Not really.

I’m sure you remember as well as I do the controversy that has surrounded our foray into electronic voting, but do you know the history? Let’s review.

The first thing you need to know is that in the voting machine industry the touch screen type of ballot casting system you use is referred to as a Direct Recording Electronic voting system, or a “DRE” if you want to sound cool the next time you run into an elections department head. If you trust the government they’ll tell you that way back in 1996 a whopping 7.7 percent of Americans cast their ballot on a DRE voting machine

The machines at that time were approved sparingly by state governments. Remember, the Constitution provides for the states to conduct elections, which means they are responsible for setting the rules. That all changed in 2002. Why?

The infamous “hanging chads” of the 2000 election convinced Congress to pass the Help America Vote Act of 2002. While the act did not require every precinct in the nation to use DRE voting systems, it pretty much made it the most viable option for states to comply with the new standards. The government even made money available to municipalities to make the switch all that much easier. Wikipedia has pretty decent rundown of the requirements put forth in the act. [link

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The presidential election in 2004 was the first major test of the new machines. One of the major manufacturers of DRE voting systems was Diebold, Inc. Their CEO, Walden O'Dell, announced in August of 2003 that he was a fundraiser for then-President George W. Bush. Needless to say a storm of controversy has since surrounded not just Diebold-produced machines, but all DRE voting machines. Shortly thereafter charges of being able to hack the DRE machines with MacGyver-like skills and tools surged through the media, convincing almost everyone who had lost their election that they had been cheated.

Using the simplest historical high points, that’s how we find ourselves here. Feel free to rage about your personal experiences with DRE machines or the vast right wing conspiracy in the comments section below. However, do know that I didn’t steal your vote, invent the machines or ask the State of Texas to approve them. But go ahead and call me an asshole if it makes you feel better.

We now find ourselves with a question of how to authenticate our election results so that we know the winner is really the winner.

We could go back to optical scan sheets or paper ballots. They leave the often sought “paper trail” people are so sure will keep all elections secure. The initial problem with both options is the possibility of someone casting an “over vote.” An over vote occurs when a voter marks more than one candidate for a particular office. This results in the vote being thrown out given that it cannot be determined what the voter’s intent was. This was the exact problem they faced in 2000 in Florida. You can’t over vote on a DRE machine – it simply won’t let you.

The DRE machine prevents the events of Florida from recurring, but it doesn’t make any of us feel better about what happens when we electronically cast our vote. When I cast my vote, does the machine record it properly? And how would I know?

That’s a great question. A question you should have also been asking about your old paper ballots as well.

There’s no guarantee that when you take your paper ballot and put it in the ballot box as you leave that it will be counted later that night at all. Voter fraud using paper ballots is historically the most common way of stealing an election by the sheer amount of time the system has been around. Let me explain how simply this can be done.

All one needs to do to compromise a paper ballot system is to have anyone in the process of transporting the ballot box or handling the ballots on the take. Paper ballots are only counted to make sure they match up with the number of voters on that precinct’s register. At any point a new batch of ballots that have been pre-marked and of the same count can be substituted. You have no way of knowing if this happens. There is zero chance for you to verify that your vote was accurately cast. You can only check the voter rolls after the election to see if they have you marked as having voted in the last election. Nobody knows but you how you voted. If you think they got your vote wrong, what proof do you have of it? None, zero, nada – when you drop that ballot in that box you are as helpless in the process as when you cast your ballot on a DRE machine. You have no real “paper trail” with paper ballots. Your “I Voted” sticker doesn’t count, either.

Ah, but where does one get a paper ballot? They must be impossible to replicate and are under strict lock and key at all times, right? Nope. I used to have stacks of the different kinds of ballots from all around the country in my office in Washington, D.C. I simply called up the FEC and state elections offices and asked them for samples because I spent my days on the road working on getting people registered to vote and trained on how to use a voting machine. They were always more than happy to help.

I had provisional ballots, ex-pat ballots, absentee ballots, optical scan ballots and regular paper ballots. The only difference was that the optical scan and paper ballots didn’t have the printed progressive numbers below the perforated edge. A quick trip to any print shop or a person with a good number stamp could knock out thousands of valid-looking paper ballots in a day. Besides, they are quite easy to replicate. We’re not exactly talking about the new $20 bill here, are we?

Going back to the paper ballots would also mean we spent a lot of money on DRE machines we can’t use anymore. So what is a county government to do?

Well, maybe they could buy new DRE machines that print out a receipt of your vote. This doesn’t solve the problem of abandoning a bunch of expensive DRE machines, but it does appear to leave a “paper trail.” Are there any drawbacks to this perfect solution? Yes.

The folks in Ohio have required that the machines spit out a receipt of a cast ballot and have run into a very disturbing problem – people can see who voted for whom!

If you’re too lazy to click the link, I’ll explain. When a person casts their vote the computer must keep a record of it, obviously. When giving you a receipt it must mark that receipt in some manner that allows someone to go back and verify the ticket against the computer. A “time stamp” is the most common method of validating the receipt. Obviously the elections department retains a copy of the receipts on their system because it is what tallies the votes. All anyone has to do is get that tally and compare the time stamp to the registrar’s book. They match up the time people came in and the vote cast at that time and they know exactly how you voted. So much for a secret ballot, I guess. Anybody who has those two pieces of information has a lot of power.

Critics of the DRE voting machines giving out a receipt also point out that the receipts don’t go home with the voter as many assume. They go into a ballot box at the polling place and are considered the official count. Again, there’s no guarantee that the computer didn’t print one thing and tally another. Then there’s the whole problem with the receipts being corrupted, lost or counterfeited. You still have no record of your vote.

Basically what I’m getting to here at the end of this journey is that there isn’t currently a full proof solution on the table. We are left to either accept the imperfect methods in front of us, or keep searching. I guess what I’m saying is that if you aren’t busy, there could be a lucrative market out there for a better ballot casting and counting system.

Any change to be made at the municipal level would have to take a basic principal of change into account. Is the solution that much more secure for the cost? If the solution costs a lot of money and isn’t that much more secure, then we should probably wait until the right system comes along before we make a move.

The only request I have is that when we do find a new system – we vote on it.

The Future of our Televisions

Television has changed a lot over the years--from black-and-white tube sets to Technicolor consoles to plasma and LCD high-definition TVs.

But the medium is still evolving. Tech companies are producing bigger (yet thinner) TV screens and immersive, customizable viewing experiences with Internet connectivity, widgets, and apps; and broadcasters are looking at ways to move beyond high-definition.

We still have a long way to go before our home entertainment systems look like something out of Minority Report, but some of the new technologies are pretty impressive: 3D TV that approximates what you'd get in a movie theater, multiple monitors designed to present a wall-size picture, and ultra-definition resolution are just some of the innovations you can look forward to.

We spoke with representatives of Samsung, one of the leaders in the television industry, about what TVs of the future might have in store for consumers. Here's what they told us.

3D Television

When tech companies tried to make "3D TV" the catch-phrase of CES 2010, many reviewers were skeptical. What's the demand for 3D TV? How many people want to don a pair of expensive and dorky-looking glasses just to watch TV? Is there enough 3D content out there for 3D TV to be more than an expensive curiosity?

Scott Birnbaum, vice president of Samsung's LCD business, says that the demand for 3D TV will skyrocket in the next couple of years, fueled by televised sports. ESPN plans to broadcast this year's soccer World Cup (which is being held in South Africa) in 3D.

If you're unsure whether a 3D TV is a good investment, you may be reassured to learn that 3D TVs can handle 2D video just fine; also, Samsung's 3D TV can convert 2D content into "3D" content (that is, content with simulated depth, but not "real" 3D content). In addition, Samsung has formed a "global strategic partnership" with DreamWorks Animation, the studio that produced such 3D features as Monsters vs Aliens and How to Train Your Dragon, to make 3D television more feasible, with Samsung producing the hardware and DreamWorks producing the content.

Sony plans to introduce its 3D TVs in Japan on June 10, and will start selling 3D TVs worldwide at around the same time. Leaked reports indicate that LG Electronics will begin delivering full-array LED-backlit LCD 3D TVs in the near future. For its part, Panasonic has promised 3D Plasma TVs by this summer, and it launched one model in March at Best Buy.

Though a number of companies are launching 3D TVs this year, the industry faces quite a few unresolved issues. 3D shutter glasses, which usually come bundled with 3D Blu-ray disc players and 3D TVs, can be quite expensive on their own (around $100 for a low-end pair). In addition, some people may experience bad effects from watching 3D TV--the list includes teens, children, the elderly, pregnant women, sufferers of serious medical conditions, and individuals who are sleep-deprived or inebriated, according to Samsung's 3D TV Warning. And finally, 4 to 10 percent of the population can't even see 3D TV because they're unable to process stereoscopic imagery (optometrists say that the condition is treatable, however).

Samsung has produced a 3D display that lets you see the 3D effect without glasses, for the "Digital Out of Home" market (for example, for screens used on digital billboards and signage). The technology uses a lenticular lens to produce 3D effects that are visible without special glasses; initially advertisers will employ it to display ads in places like airports, as a novel way of catching the attention of passersby. Though this nonglasses technology is not as yet suited for home entertainment, it could be someday. And if 3D TV ever manages to ditch the glasses, it may really take off.

Superthin Bezels

LCD panels keep getting thinner and thinner, but what about those annoyingly thick screen bezels? Enter the Runco WindowWall, which Samsung developed for high-end home-theater enthusiast vendor Runco.

An LCD screen consists of two pieces of glass that must be bonded together around the edges, and this creates a certain amount of dead space where LCD two panels abut. Samsung has reduced the amount of dead space between contiguous panels to just 7.33mm, however, giving the WindowWall an almost seamless look.

The 1366-by-768-pixel panels in the WindowWall measure 46 inches diagonally. From close up you can see the 7.33mm-thick bezels between panels, but if you look at the whole picture from about 15 feet away, the big picture looks great.

The WindowWall is scalable and can consist of as few as four or as many as twenty screens. You can hook up the screens to display one image across all of the screens or to display something different on each screen. To make the system work in sync, however, you must have a display controller unit and power supply unit for every four screens.

TV manufacturers already can make huge, seamless LCD screens--but the WindowWall is a more economical product. For one thing, shipping a 92-inch screen costs a lot more than shipping four 46-inch screens does. Unfortunately, the technology isn't consumer-friendly at the moment: A nine-screen setup costs around $100,000.

Visible Light Communication

One day, you may be able to obtain customized information directly from your television's LED backlights, thanks to a new technology dubbed "Visible Light Communication." The LED lights transmit information by flickering at high frequencies; a device with a photodiode (for example, a cell phone) then picks up the transmitted signals.

According to Samsung, this new technology could have a profound impact on the future of TV, in part because it would allow advertisers to take a completely different approach to airing commercials.

Though Samsung says that products featuring Visible Light Communication won't arrive anytime soon, the technology has been demonstrated with working prototypes. The Nakagawa Laboratory of Tokyo's Keio University has done extensive research in Visible Light Communication, as well.

Ultra-Definition TV

Visible Light Communication, WindowWalls, and 3D TV aren't all that's in store for home-theater systems. TVs with 240Hz refresh rates and Internet connectivity are becoming increasingly common, and 480Hz sets are slated to arrive later this year. Farther down the road, ultra definition (with 3840-by-2160-pixel resolution in place of high definition's 1920-by-1080-pixel resolution) could make its way into your living room.

Ultra definition (UD) will become more critical as display sizes get larger, Birnbaum says. Samsung has demonstrated a UD 82-inch LCD panel, but UD content is not readily available yet, and as a result no market for the technology exists yet. Like HDTV, UDTV will be able to handle lesser (720p or 1080p) content.

A significant feature of ultra-definition television will be its zoom capability. As screens get bigger, viewers will be able to zoom in to get a close-up view of the action. "Imagine watching a football game, pausing the action, and zooming in on your own instant reply to 'make the call' on a questionable end-zone catch. UD will get viewers completely involved in the game," Birnbaum says.

So that's what awaits you in the future of television: an immersive viewer experience, personalized content, and huge screens. It looks as though Samsung and its fellow TV producers are out to make movie theaters obsolete. But much of this technology is still far ahead of the market--so you'll have to continue paying for movies for at least a couple more years.