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भले ही राष्ट्रपति बराक ओबामा कुछ शर्तें लगाएं, लेकिन पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता एक मजबूरी बन गई है। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के मुताबिक जरूरी है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत किया जाए। पाकिस्तानी प्रशासन के भाग्य से किसी को भी ईष्र्या हो सकती है। पाकिस्तान आज भी बेहतर ब्लैकमेल की स्थिति में है। सोवियत संघ के खिलाफ तालिबान को खड़ा करने के लिए 3.2 अरब डालर, तालिबान के खात्मे के लिए 8 अरब डालर और अब लोकतंत्र मजबूती के लिए दी जा रही रकम दोनों को मिलाकर भी उससे कहीं अधिक होने की संभावना है। पाकिस्तान को असैनिक सहायता से सैन्य साजोसामान खरीदने की महारथ हासिल है। सिर्फ अकाउंट बुक में हेरफेर की जरूरत है, इससे ज्यादा और कुछ नहीं। अगर अमेरिका पाकिस्तान को सिर्फ उसके भाग्य के भरोसे छोड़ दे तो भी समस्या का समाधान हो जाए। साम्राज्यवादी काल के अंत में पश्चिमी शक्तियों ने एशिया में इजरायल और पाकिस्तान के रूप में दो बड़े नासूर दे दिए। उनका रणनीतिक उद्देश्य एक तो अरब दुनिया और दूसरा भारत की महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करना था। अब वे चौधरी बनकर अपनी ही पैदा की हुई समस्याओं का समाधान हम पर थोप रहे हैं। अमेरिका की भौतिकवादी सोच भारतीय उपमहाद्वीप और पश्चिम एशिया के क्षेत्र का मनोविज्ञान समझ नहीं पाती। अफगान विजय के बाद जुनूनी तालिबान का जिहाद में विश्वास दृढ़ होता गया। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के मजहबीकरण के बाद से यह संभव नहीं है कि पाकिस्तानी सेना को तालिबान के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एक सीमा से आगे मजबूर किया जा सके। अब सदियों बाद परमाणुसंपन्न सेना की मजबूत इस्लामिक धुरी आकार ले रही है। वह विचारधारा जिसने दुनिया को दारुल इस्लाम और दारुल हरब में बांट रखा है, के वैश्विक एजेंडे के लिए इससे उपयुक्त अवसर और कौन सा है? अमेरिका को समझना होगा कि उनकी सहायता आतंक की समस्या को कितनी मुश्किल बनाती जा रही है।
अफगान और पख्तून वे कौमे हैं जिन्हें गुलामी के विचार मात्र से गहरी नफरत है। उनके भीतर विद्रोह और खुदमुख्तारी की भावना इसलिए भी जबरदस्त है, क्योंकि उन्हें अपनी सरकारें चलाने का अवसर कम मिला है। परिणामस्वरूप वे कबीलाई स्वायत्तता के टापुओं में तब्दील होते गए। तानाशाहों ने वहां कबीलाई व्यवस्था में दखल दिए बिना शासन किया है। वे अपने उसी मध्यकालीन कबाइली समाज की मानसिकता में आज भी कैद हैं। उनके लिए वक्त उसी दौर में ठहर गया है जहां जिहाद इंसान का बुनियादी दायित्व था। जिहाद और राष्ट्रीयता परस्पर विरोधी विचार हैं। जिहाद एक विद्रोह है नई पहचान के लिए, इसके विपरीत राष्ट्रीयता अस्तित्व का स्वीकार है। पाकिस्तान की सरकारें डालरों के लिए दूसरी भाषा बोलती हैं, लेकिन पाकिस्तान का आम नागरिक अमेरिका से घृणा करता है। अमेरिका के मुद्दे पर तालिबान और पाकिस्तान एक साथ हैं। वे जानते हैं कि अमेरिका तेल मुल्कों की राजनीति और अर्थव्यवस्था अपने अनुसार चलाना चाहता है। अमेरिकी समझते हैं कि लोकतंत्र लादकर वे इस्लामी जगत को नियंत्रित कर लेंगे। लोकतंत्र को लेकर दोहरे अमेरिकी प्रतिमान इससे भी जाहिर हैं कि वे सऊदी अरब में लोकतंत्र नहीं, बल्कि सुल्तानों का ही शासन चाहते हैं। इसलिए लोकतंत्र जब तक अमेरिकी हाथों में है, उसे उनका हथियार ही समझा जाएगा।
नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस जिसे आजादी से पहले सरहदी सूबा कहा जाता था, को कभी भगवान बुद्ध और उनके काफी बाद खां अब्दुल गफ्फार खां ने शांति का पाठ पढ़ाया। अंग्रेजों की जिन्ना से मिलीभगत के कारण 1946 में खां साहब की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर उसे पाकिस्तान के हवाले कर दिया गया। खां अब्दुल गफ्फार खां ने आजादी के बाद कहा भी था कि कांग्रेस द्वारा पख्तूनों को भेड़िये की मांद में धकेल दिया गया। पाकिस्तान की राजनीति में इतने बरसों में पख्तून हाशिये पर ही रहे और अपने इलाके में खुदमुख्तारी का परचम लहराते रहे। वे मुहाजिरों के दबाव में बने पाकिस्तान के कभी भी दिली समर्थक नहीं थे। पाकिस्तान ने मजहब की आड़ में उन्हें कभी कश्मीर में तो कभी रूस के खिलाफ इस्तेमाल किया, लेकिन इतने वर्षों में उनकी जिंदगी में तालीम की रोशनी नहीं आने दी। जब उन्हें तालिब या शिक्षित बनाने का वक्त आया तो उन्हें रूस के खिलाफ लड़ने के लिए जिहादी तालिबान बना दिया गया। पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा अब तक सिर्फ इनका इस्तेमाल किया गया है, सत्ता व अधिकार में कोई भागीदारी नहीं दी गई। पख्तूनों के इलाके को अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरहदों में बांट दिया जाना एक बड़ी ऐतिहासिक गलती थी। अंग्रेज यह नहीं समझे कि पख्तूनों को सीमाओं में बांटना संभव नहीं है। वह राष्ट्रवाद जिसे मजहब की आड़ में दबाया गया, अब जिहाद के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।
अब रास्ता क्या है? अगर पाकिस्तानी सेना, तालिबान, और अलकायदा के संयुक्त तंत्र को तोड़ना है तो पख्तून काउंसिल या 'लोया-जिरगा' की परंपरा में पख्तून समाज के सत्ता व अधिकार की बात करनी पड़ेगी। उन्हें अपने इलाके की खुदमुख्तारी देनी पड़ेगी। पख्तून क्षेत्र को बांटने वाली डूरंड लाइन को दरकिनार कर उन्हें वह आजादी देनी पड़ेगी जो पश्तो कवि स्व. कबीर स्तोराई की शायरी में मुखर है और सदियों से पख्तून समाज का ख्वाब रही है। अगर अमेरिकी नीति-नियंता पख्तून राष्ट्रवाद को समझेंगे तो तालिबान और अलकायदा के भूत के गायब होने का रास्ता दिखना प्रारंभ हो जाएगा। आईएसआई और पाकिस्तानी सेना इसी पख्तून राष्ट्रवाद से भयभीत होकर उन्हें वैश्विक मजहबी साम्राज्य का सब्जबाग दिखा रही है। पख्तून राष्ट्रवाद की असलियत स्वीकार करते हुए सरहदी सूबे को पाकिस्तान की गुलामी से मुक्ति देनी होगी। तालिबान और जिहाद के फलस्वरूप समस्याओं के समाधान के मद्देनजर क्या अमेरिका इसके लिए तैयार है?
[आर. विक्रम सिंह पूर्व सैन्य अधिकारी हैं]
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