मंगलूर के एक पब में शराब पीने वाली लड़कियों की पिटाई के मामले ने जैसा राजनीतिक रंग अख्तियार किया है उससे देश में सात्विक सोच रखने वालों की मानसिक पीड़ा में भले वृद्धि हुई हो, लेकिन किसी को आश्चर्य नहीं हुआ है। हमारी राजनीति अपनी ही निर्धारित कसौटियों पर जिस अध:पतन की ओर अग्रसर है उसमें किसी भी मुद्दे पर विवेक से राष्ट्रहित के लक्ष्य से आचरण करने की कल्पना अब बेमानी हो चुकी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि इसके कारण आम आदमी के लिए कौन सही है और कौन गलत, यह फैसला करना कठिन हो जाता है। मंगलूर मामले में भी यही स्थिति है। किसी भी परिस्थिति में हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता। चाहे कारण कितना भी न्यायसंगत हो, हिसंक विरोध से केवल नकारात्मक संदेश ही निकलता है। श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाया गया तरीका गलत है। कुछ लोग इसे कानून अपने हाथ में लेना कह सकते हैं, लेकिन आंदोलन करने वालों को कानून-व्यवस्था के वास्तविक चेहरे का बेहतर अहसास है। बावजूद इसके ऐसे अराजक विरोध की इजाजत किसी को नहीं मिलनी चाहिए, किंतु इसका यह भी अर्थ नहीं कि गलत तरीके से विरोध करने के कारण मुद्दा भी गलत हो गया। तर्क दिया जा सकता है कि पब को सरकार ने लाइसेंस दिया है और उसमें यह कहीं नहीं लिखा कि लड़कियां/ महिलाएं वहां शराब नहीं पी सकतीं। संविधान एवं कानून हमारे यहां स्त्री-पुरुषों के बीच भेद नहीं करता तो फिर कोई लड़की/ महिला यदि पब में शराब पी रही है या डांस कर रही है तो इससे किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? आखिर पुरुष वही सब करें तो आपत्ति नहीं है और महिला करे तो इतनी आपत्ति कि उन्हें भयभीत करने के लिए हिंसा तक का सहारा लिया जाए। श्रीराम सेना के नेता प्रमोद मुथालिक ने कहा है कि वे भारतीय संस्कृति बचाने के लिए लड़कियों को अनैतिक होने से बचाना चाहते हैं। श्रीराम सेना की संस्कृति, अनैतिकता एवं अश्लीलता की परिभाषा से असहमति हो सकती है और यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि आपको इसकी ठेकेदारी किसने दी, किंतु लोकतंत्र यदि आपको सरकारी लाइसेंस से कुछ करने का अधिकार देता है तो दूसरे को उसका विरोध करने का भी उतना ही अधिकार है। हिंसक विरोध का तो प्रतिकार होना चाहिए, लेकिन विरोध होना ही नहीं चाहिए, ऐसी दलीलें गैर वाजिब हैं। श्रीराम सेना का विरोध करने की सीमित मानसिकता में हम यह भूल रहे हैं कि शराबखोरी का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम महिलाओं को ही झेलना पड़ता है। पिछले कुछ सालों में शराब की दुकानों या ठेके बंद करवाने का अंादोलन जहां भी तीखा हुआ उसकी अगुआई महिलाओं ने ही की है। वस्तुत: सारी समस्या पूरे प्रकरण को गलत नजरिये से देखने एवं राजनीतिक दलों द्वारा इसे राजनीतिक रंग देने के फलस्वरुप पैदा हुई है। श्रीराम सेना की यह सोच बचकानी है कि ऐसे विरोधों से वह भारतीय संस्कृति की रक्षा करेगी या महिलाओं या संपूर्ण समाज को अनैतिक होने से बचा लेगी, लेकिन यह एक हिंदुत्ववादी संगठन है और इस समय कर्नाटक में भाजपा की सरकार है इसलिए विरोधियों द्वारा उसे निशाना बनाना बिल्कुल आसान है।
दुनिया में मार्ग दुर्घटनाओं पर काम करने वाले बार-बार यह साबित कर रहे हैं कि इनमें बड़ी संख्या उन चालकों की है जो शराब पिए थे। शराबबंदी आंदोलन के समर्थक बार-बार आंकड़े देकर यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि इससे होने वाली आमदनी से इसके कारण होने वालों अपराधों के नियंत्रण एवं उनकी कानूनी कार्रवाइयों पर खर्च कहीं ज्यादा है। इन आंकड़ों पर सहमति कठिन है, लेकिन हमें शराब पर महात्मा गांधी के विचार जानने चाहिए: उनका कहना था,''आपको ऊपर से ठीक दिखाई देनेवाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिए कि शराबबंदी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन्हें इसकी सुविधाएं मिलनी ही चाहिए। राज्य का यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी प्रजा के कुटेवों के लिए अपनी ओर से सुविधाएं दे। हम वेश्यालयों को अपना व्यवसाय चलाने की अनुमति पत्र नहीं देते। इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रवृत्ति पूरी करने की सुविधाएं नहीं देते। मैं शराब को चोरी और व्यभिचार, दोनों से ज्यादा निंद्य मानता हूं।'' आज अगर गांधी जिंदा होते तो शराब के समर्थक उन्हें भी प्रतिगामी घोषित कर देते। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि कभी ऐसा दिन जाएगा जब विकास के नाम पर शराब या ऐसे अन्य नशे को सरकार की सुरक्षा इसलिए मिलेगी कि इससे कर राजस्व प्राप्त होता है। जाहिर है कि इस बुराई को दूर करना होगा, किंतु इसके लिए अहिंसक रास्ता अपनाया जाना चाहिए।
आपका हिन्दी चिट्ठाकारी में हार्दिक स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteशराबबंदी का आग्रह अहिंसक तरीके से भी हो सकता है, मगर इसमें पब्लिसिटी नहीं. स्वागत.
ReplyDelete(gandhivichar.blogspot.com)
sahi kaha hai aapne. par manta koun hai. narayan naraayn
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